हिन्दू धर्म में भगवान श्रीकृष्ण का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं, जिन्होंने धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए पृथ्वी पर जन्म लिया था। परंतु क्या आप जानते हैं कि पूर्ण परमात्मा होने के बावजूद भी श्रीकृष्ण की मृत्यु कुछ श्रापों के कारण हुई थी? आज हम इस रहस्यमय विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे और जानेंगे कि किन तीन श्रापों के कारण द्वारका के राजा का देहावसान हुआ।
भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु का रहस्य
महाभारत के शांति पर्व और मौसल पर्व में श्रीकृष्ण के अंतिम दिनों का वर्णन मिलता है। बताया जाता है कि कलियुग के आरंभ होने के साथ ही श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य शरीर का त्याग किया। यह घटना प्रभास तीर्थ (वर्तमान में गुजरात के सोमनाथ के पास) में घटित हुई, जहां वे एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। एक व्याध (शिकारी) जरा ने उन्हें दूर से हिरण समझकर उनके पैर में तीर मार दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
परन्तु यह सिर्फ एक साधारण घटना नहीं थी। वास्तव में, यह तीन महत्वपूर्ण श्रापों का परिणाम था जो अलग-अलग समय पर श्रीकृष्ण को दिए गए थे। आइए इन तीनों श्रापों के बारे में विस्तार से जानें।
पहला श्राप गुरु शुक्राचार्य द्वारा दिया श्राप
श्री हरि विष्णु को पहला श्राप तब मिला जब असुरों के गुरु शुक्राचार्य तीर्थ करने पाताल लोक के बाहर गए|
इस अवसर का लाभ उठाते हुए देवताओं ने असुरों पर आक्रमण कर दिया अचानक हुए इस आक्रमण से सब असुर आहत हो गए और बचते-बचाते शुक्राचार्य की मां काव्य माता की शरण में पहुंचे|
काव्य माता ने देवताओं पर एक ऐसा मंत्र फूंका| जिससे वह बेहोश हो गए तब तक जब तक शुक्राचार्य वापस नहीं आ जाते|
जब भगवान विष्णु को इस घटना का ज्ञान हुआ तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से काव्य माता का वध कर दिया| जिसके कारण उस मंत्र का प्रभाव समाप्त हो गया और युद्ध में देवताओं को विजय प्राप्त हुई|
जब शुक्राचार्य वापस आए और उन्हें अपनी माता की मृत्यु और असुरों की पराजय का पता चला| तो शुक्राचार्य बेहद क्रोध में आ गए|
एक स्त्री वध करके श्रीकृष्णने जो अपराध किया है| उसके लिए शुक्राचार्य ने उन्हें धरती लोक पर जन्म लेकर मृत्यु का अनुभव करने का श्राप दिया| इस श्राप के कारण श्री कृष्ण रूप में विष्णु भगवान को मृत्यु का अनुभव करना पड़ा|
दूसरा श्राप: गांधारी का श्राप
महाभारत युद्ध के बाद गांधारी का क्रोध
महाभारत के युद्ध के बाद गांधारी, जिनके सौ पुत्र (कौरव) युद्ध में मारे गए थे, श्रीकृष्ण से अत्यंत क्रुद्ध थीं। वे मानती थीं कि श्रीकृष्ण चाहते तो युद्ध को रोक सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब श्रीकृष्ण युद्ध के बाद गांधारी से मिलने गए, तो उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया।
गांधारी द्वारा दिया गया श्राप
गांधारी ने अपनी तपस्या से प्राप्त शक्ति का उपयोग करते हुए श्रीकृष्ण को श्राप दिया:
“हे कृष्ण, जैसे मेरे पुत्र और परिवार का विनाश हुआ है, वैसे ही तुम भी अपने परिवार का विनाश देखोगे। छत्तीस वर्ष के पश्चात् तुम्हारा यादव कुल आपस में ही लड़कर नष्ट हो जाएगा, और तुम एक साधारण शिकारी के बाण से मृत्यु को प्राप्त करोगे।”

यह श्राप सच हुआ जब यादव वंश आपस में ही लड़कर नष्ट हो गया और श्रीकृष्ण की मृत्यु व्याध जरा के तीर से हुई।
गांधारी के श्राप का प्रभाव
श्रीकृष्ण ने गांधारी के श्राप को शांति से स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि यह धर्म का उचित परिणाम था। उन्होंने कहा था कि वे, विष्णु के अवतार होने के बावजूद, श्राप के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते क्योंकि वे भी कर्म के नियमों से बंधे हैं।
तीसरा श्राप: ऋषि दुर्वासा का श्राप
दुर्वासा ऋषि से मुलाकात – श्री कृष्ण के पुत्रों का मजाक और दुर्वासा का श्राप
श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब और उनके कुछ मित्र मद में नशे में चूर हो कर ऋषि का मजाक उड़ाने की सोची। उन्होंने साम्ब को गर्भवती स्त्री के वेश धारण करवा कर दुर्वासा ऋषि के सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने पूछा, “हे महर्षि! यह गर्भवती स्त्री पुत्र को जन्म देगी या पुत्री को?”
दुर्वासा ऋषि इस मजाक को समझ गए और अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने तुरंत श्राप दिया:
“हे मूर्ख मदिरा के मद में चूर होने के कारण तुम्हारे भीतर मनुष्य की भावना समाप्त हो गई है अब तुम एक मुसल की भांति हो जिसमे कोई भावना नहीं होती| इस कारण तुम्हारे इस गर्भ से न पुत्र होगा न पुत्री, अपितु एक सप्ताह बाद लोहे का मूसल निकलेगा जो पुरे यदु वंश का विनाश करेगा।”
और अंत में, साम्ब के पेट से एक लोहे का मूसल कला, जिसे बाद में पीसकर समुद्र में फेंक दिया गया।

दुर्वासा के श्राप का परिणाम
समुद्र में फेंके गए मूसल के भस्म से एरका नामक घास उगी, जिससे यादवों ने शराब बनाई। इस शराब के नशे में यादव आपस में लड़कर नष्ट हो गए, जिससे गांधारी का श्राप भी पूरा हुआ।
महाराज उग्रसेन के कहने पर लोहे को पूरी तरहं से पीस समुद्र में बहा दिया| लेकिन उस मूसल का एक
हिस्सा धूल नहीं बना जिसे जैसे का तैसा समुद्र में बहा दिया गया| यह टुकड़ा एक ने निगल लिया| एक मछुआरे ने उस लोहे के टुकड़े को एक शिकारी को दे दिया| शिकारी ने उससे एक तीर को तैयार किया|
कहा जाता है कि शिकारी और कोई नहीं पिछले जन्म का वानरराज बाली था| जिसे श्री राम ने पिछले जन्म में छुपकर अपने बाण से मारा था|
इस जन्म में यही बाली ने जरा नामक शिकारी के शिकारी में रूप में जन्म लिया| एक दिन श्री कृष्ण एक पेड़ ने निचे लेते विश्राम कर रहें थे| उसी समय जरा शिकारी वहां से गुजर रहा था। उसने दूर से श्रीकृष्ण के पैर के लाल तलवे को हिरण का कान समझा और उस पर तीर चला दिया। तीर श्रीकृष्ण के पैर में लगा |
बाण लगते ही श्री कृष्ण को अहसास हो गया कि उनका इस युग में कार्य समाप्त हो गया है
और इस तरह श्रीकृष्ण की द्वापर युग में लीला समाप्त हुई|
श्रीकृष्ण की मृत्यु का आध्यात्मिक महत्व
लीला का समापन
हिन्दू धर्म में श्रीकृष्ण की मृत्यु को उनकी लीला का समापन माना जाता है। वे जानते थे कि उनका कार्य पूर्ण हो चुका है और कलियुग का आरंभ हो चुका है। इसलिए उन्होंने स्वेच्छा से अपने दिव्य शरीर का त्याग किया।
श्राप और कर्म का सिद्धांत
यह कथा हमें कर्म के सिद्धांत के बारे में महत्वपूर्ण शिक्षा देती है। यह दर्शाती है कि यहां तक कि भगवान को भी कर्म के नियमों का पालन करना पड़ता है। श्रीकृष्ण ने श्रापों को स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि इससे धर्म की रक्षा होगी।
पूर्णत्व और क्षणभंगुरता का संदेश
श्रीकृष्ण की मृत्यु हमें संसार की क्षणभंगुरता का संदेश देती है। यह दर्शाती है कि हर चीज का अंत होता है, चाहे वह कितनी ही महान क्यों न हो। इसके साथ ही, यह हमें सिखाती है कि मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा अमर है।

निष्कर्ष
श्रीकृष्ण की मृत्यु के पीछे तीन प्रमुख श्रापों की कथा हमें बताती है कि कैसे विभिन्न पात्रों के कर्म और श्राप एक साथ मिलकर एक महत्वपूर्ण घटना का कारण बने। शुक्राचार्य, गांधारी, और दुर्वासा ऋषि के श्राप अलग-अलग समय और परिस्थितियों में दिए गए, परंतु अंत में वे सभी एक साथ पूरे हुए।
यह कथा हमें सिखाती है कि प्रत्येक कर्म का परिणाम होता है, और कोई भी, यहां तक कि भगवान भी, इस नियम से परे नहीं है। साथ ही, यह कथा हमें सिखाती है कि हमें अपने व्यवहार और वचनों में सावधान रहना चाहिए, क्योंकि हमारा हर कर्म परिणाम लाता है।
श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद द्वारिका समुद्र में डूब गई और कलियुग का आरंभ हुआ। इस प्रकार, एक महान युग का अंत हुआ और एक नए युग का आरंभ हुआ, जिसमें हम आज भी जी रहे हैं।
इस ब्लॉग पोस्ट में दी गई जानकारी विभिन्न पौराणिक ग्रंथों, विशेष रूप से महाभारत, विष्णु पुराण और भागवत पुराण पर आधारित है। हिन्दू धर्म में विभिन्न कथाओं के अनेक संस्करण हो सकते हैं, और यह पोस्ट उनमें से एक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है।
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