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भगवान शिव के पास कैसे आया डमरू,त्रिशूल और नाग

भगवान शिव के पास कैसे आया डमरू,त्रिशूल और नाग? जानें क्या है इसके पीछे का रहस्य

हिन्दू पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को महादेव, नटराज और त्रिलोकनाथ जैसे कई नामों से जाना जाता है। उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं उनके प्रतीक चिन्ह – डमरू, त्रिशूल और उनके गले में लिपटा हुआ नाग। ये प्रतीक केवल सजावटी वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि गहन आध्यात्मिक और दार्शनिक महत्व रखते हैं। आइए जानते हैं इन प्रतीकों के पीछे की कहानियाँ और इनका महत्व।

डमरू: नाद ब्रह्म का प्रतीक

शिव के हाथ में सदा विराजमान डमरू सृष्टि के आदि नाद का प्रतीक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव अपने डमरू को बजाते हैं, तो उससे निकलने वाला नाद “दम-दम-दम” ब्रह्मांड की उत्पत्ति का प्रथम स्वर होता है।

डमरू की प्राप्ति की कथा

शिवपुराण के अनुसार, डमरू की उत्पत्ति शिव के तांडव नृत्य से जुड़ी है। जब सती ने दक्ष के यज्ञ में अपने प्राण त्यागे, तो शिव अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजकर यज्ञ का विनाश किया और फिर सती के शव को दोनों हाथों पर लेकर तांडव नृत्य करने लगे।

इस तांडव से सृष्टि के विनाश का खतरा पैदा हो गया। तब देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए, जो भारत के विभिन्न स्थानों पर गिरे और शक्ति पीठ के रूप में स्थापित हुए।

बाद में, जब शिव शांत हुए, तब ब्रह्मा ने उन्हें डमरू भेंट किया। यह डमरू दो त्रिकोणों के मिलन से बना होता है – ऊपर का त्रिकोण पुरुष तत्त्व (शिव) का और नीचे का त्रिकोण स्त्री तत्त्व (शक्ति) का प्रतीक है। इन दोनों का मिलन सृष्टि के निर्माण का कारण बनता है।

एक अन्य कथा के अनुसार, डमरू वह वाद्य यंत्र है जिससे संस्कृत व्याकरण का जन्म हुआ। कहा जाता है कि शिव के डमरू की ध्वनि से पाणिनि ऋषि को संस्कृत के माहेश्वर सूत्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ।

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त्रिशूल: त्रिगुण का प्रतीक

शिव का त्रिशूल सत्व, रजस और तमस – इन तीन गुणों का प्रतीक है। यह अतीत, वर्तमान और भविष्य के त्रिकाल का भी प्रतिनिधित्व करता है। त्रिशूल बुराई पर अच्छाई की विजय का भी प्रतीक है।

त्रिशूल की प्राप्ति की कथा

शिवपुराण और स्कंदपुराण में त्रिशूल की उत्पत्ति से संबंधित कई कथाएँ मिलती हैं। एक प्रमुख कथा है त्रिपुरासुर वध से जुड़ी।

त्रिपुरासुर तीन असुर भाई थे जिन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा से तीन अलग-अलग पुरों (शहरों) का वरदान प्राप्त किया था – स्वर्ण का पुर स्वर्ग में, चांदी का पुर अंतरिक्ष में और लोहे का पुर पृथ्वी पर। ब्रह्मा ने यह भी वरदान दिया था कि ये तीनों पुर हजार वर्षों में एक बार ही एक पंक्ति में आएंगे और केवल तभी इनका विनाश संभव होगा।

जब त्रिपुरासुर ने देवताओं और मनुष्यों पर अत्याचार आरंभ किया, तब देवताओं ने शिव से सहायता मांगी। विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक विशेष त्रिशूल का निर्माण किया। जब तीनों पुर एक रेखा में आए, तब शिव ने एक ही बाण से तीनों पुरों का वध कर दिया और त्रिशूल से त्रिपुरासुर का वध किया। इस कारण से शिव को “त्रिपुरांतक” भी कहा जाता है।

नाग: कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक

शिव के गले में लिपटा हुआ नाग कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। यह मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र का भी प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि सांप अपनी केंचुली उतारकर नवीकरण का प्रतीक बनता है।

नाग के आगमन की कथा

शिव के गले में विराजमान नाग वासुकि है। इसकी कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तो उन्होंने मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी के रूप में प्रयोग किया।

मंथन के दौरान, जब विषकन्या हलाहल निकली, जिसके विष से सम्पूर्ण सृष्टि के नष्ट होने का खतरा था, तब शिव ने उस विष को स्वयं पी लिया और अपने कंठ में धारण कर लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे “नीलकंठ” कहलाए।

इस महान त्याग से प्रभावित होकर, वासुकि नाग ने स्वयं को शिव के गले में अलंकार के रूप में अर्पित कर दिया। कहा जाता है कि वासुकि नाग शिव को हमेशा अपने विष से बचाते हैं, जिसे शिव ने अपने कंठ में रोक रखा है।

एक अन्य कथा के अनुसार, जब शिव ध्यान में लीन थे, तब कई नाग उनके शरीर पर चढ़ गए। शिव के तप की अग्नि से नागों को कोई हानि नहीं पहुंची बल्कि वे शिव के शरीर के आभूषण बन गए।

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समापन: प्रतीकों का गहन अर्थ

भगवान शिव के ये प्रतीक – डमरू, त्रिशूल और नाग केवल शारीरिक आभूषण नहीं हैं। ये जीवन और ब्रह्मांड के गहन सत्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। डमरू सृष्टि के आदि नाद और कालचक्र का प्रतीक है। त्रिशूल तीन शक्तियों – इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। नाग कुंडलिनी शक्ति और आत्मज्ञान की यात्रा का प्रतीक है।

इन प्रतीकों के माध्यम से, शिव हमें सिखाते हैं कि जीवन में संतुलन, त्याग और आत्मनियंत्रण का महत्व है। वे हमें बताते हैं कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहना और अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत करना ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है।

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