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तीन पैर वाले ऋषि भृंगी का रहस्य

तीन पैर वाले ऋषि भृंगी का रहस्य | माता पार्वती ने क्यों दिया श्राप

क्या आपने कभी विचार किया है कि कैलाश पर्वत के निवासी और महादेव के प्रमुख अनुयायी ऋषि भृंगी के पास तीन चरण क्यों थे? यह विलक्षण आख्यान हमें एकतरफा भक्ति और बुद्धि के अंधेपन के बीच के द्वंद्व की झलक दिखाता है।

सनातन धर्म की गहराइयों में छिपी अनेकों कथाएँ हमारे जीवन को नई दिशा देती हैं। महादेव के गण-समूह में कुछ विशेष नाम आते हैं – गणेश, नंदी, श्रृंगी, भृंगी और वीरभद्र। जहां शिव विराजते हैं, वहां इन सभी का निवास होना अनिवार्य है। इन्हीं विशिष्ट गणों में एक अनूठे चरित्र का नाम है ऋषि भृंगी, जिनकी सबसे अनोखी विशेषता यह थी कि उनके तीन पैर थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री शिव-विवाह के वर्णन में इन्हें याद करते हुए लिखा – “बिनु पद होए कोई बहुपद बाहु” – जिसका तात्पर्य है कि शिव के अनुचरों में कुछ बिना पैरों के थे, तो कुछ के पास अधिक पैर थे। यह पंक्ति मूलतः ऋषि भृंगी की ओर संकेत करती है।

आइए, इस विलक्षण कहानी के अंतर्निहित तथ्यों को जानें और समझें कि कैसे अतिशय भक्ति भी कभी-कभी अहंकार और अज्ञान का द्वार बन जाती है।

परम शिव भक्त ऋषि भृंगी

भृंगी महादेव के सबसे समर्पित उपासकों में से एक थे। उन्हें एक महान तपस्वी और अनन्य शिव-अनुरागी के रूप में जाना जाता है। उनकी भक्ति इतनी गहन थी कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन केवल शिव की आराधना में समर्पित कर दिया था। वे इतने एकनिष्ठ थे कि उन्होंने कभी भी माता पार्वती का सम्मान नहीं किया और उन्हें पूरी तरह से अनदेखा कर दिया। उनके मन-मस्तिष्क में केवल शिव का ही स्थान था।

उनका नामकरण ‘भृंग’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘भ्रमर’ या ‘भौंरा’। जैसे भौंरा सिर्फ कमल के मकरंद का रसपान करता है और अन्य पुष्पों की ओर आकर्षित नहीं होता, वैसे ही भृंगी केवल महादेव की उपासना में तल्लीन रहते थे। उनकी “शिवस्य चरणं केवलम्” की मान्यता थी – अर्थात उनकी बुद्धि यह स्वीकार ही नहीं करती थी कि शिव और पार्वती में कोई भेद नहीं है।

कैलाश पर्वत पर एक अद्भुत घटना

एक दिन की बात है, जब शिव के अनन्य भक्त ऋषि भृंगी कैलाश पर्वत पर अपने प्रिय आराध्य की परिक्रमा करने पहुंचे। उस समय, जैसा कि अक्सर होता था, महादेव की बाईं जांघ पर आदिशक्ति जगदंबा विराजमान थीं। शिवजी गहन समाधि में लीन थे, परंतु माता पार्वती पूर्णतया चेतनावस्था में थीं और उनके नेत्र खुले हुए थे।

भृंगी ऋषि तो महादेव की परिक्रमा करने आए थे, परंतु एक समस्या थी – शिवजी ध्यानमग्न थे और उनके वामांग पर पार्वती विराजमान थीं। भगवान शिव के प्रेम में मतवाले भृंगी परिक्रमा करना चाहते थे, परंतु केवल शिवजी की, पार्वती जी को छोड़कर। क्योंकि उनकी ब्रह्मचर्य की परिभाषा अलग थी।

अपनी उतावली में, ऋषि भृंगी ने माता जगदंबा से अनुरोध कर दिया कि वे शिवजी से अलग होकर बैठें, ताकि वे सिर्फ शिव की परिक्रमा कर सकें। जगदंबा समझ गईं कि यह तपस्वी अभी अपूर्ण ज्ञान से ग्रस्त है, इसलिए उन्होंने भृंगी की बात को अनसुना कर दिया।

अड़ियल हठ और परिणाम

परंतु ऋषि भृंगी अपनी हठ पर अटल थे। वे किसी भी सलाह या ज्ञान को सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने दोबारा माता पार्वती से कहा कि वे कुछ समय के लिए एक तरफ हट जाएं ताकि वे परिक्रमा पूरी कर सकें।

ऋषि-भृंगी-के-तीन-पैरों-का-रहस्य-पौराणिक-कथा

पार्वती जी ने इस अनुचित मांग पर आपत्ति जताई और कहा कि ऐसा मत करो। उन्होंने भृंगी को समझाया कि जगदंबा महादेव की अभिन्न शक्ति हैं। भला वे सदाशिव से अलग कैसे हो सकती थीं? माता ने अनेक तरीकों से ऋषि को समझाने का प्रयास किया। प्रकृति और पुरुष के संबंधों की विस्तृत व्याख्या की और वेदों के उदाहरण भी दिए, परंतु ऋषि भृंगी अपनी जिद पर अड़े रहे।

कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति हठी हो जाता है, तो उसकी विवेक-बुद्धि आधी रह जाती है। माता द्वारा दिए गए ज्ञान और उपदेश भृंगी के विवेक में प्रवेश ही नहीं कर पाए। वे सिर्फ शिव की परिक्रमा करने पर अड़े रहे।

चतुराई का प्रयास और अर्धनारीश्वर रूप

माता पार्वती ने सोचा कि इस अज्ञानी को कुछ भी समझाने का कोई लाभ नहीं है, और वे शिवजी से अलग नहीं हुईं। लेकिन ऋषि भृंगी भी अपनी जिद पर अडिग रहे।

अपनी इच्छा पूरी करने के लिए ऋषि भृंगी ने एक चतुर योजना बनाई। उन्होंने सर्प का रूप धारण किया और शिवजी की परिक्रमा करने लगे। सर्प के रूप में रेंगते हुए वे जगदंबा और महादेव के बीच से निकलने का प्रयास करने लगे।

इस धृष्टता के परिणामस्वरूप शिवजी की समाधि भंग हो गई। भगवान शिव ने समझ लिया कि यह मूर्ख भक्त पार्वती जी को उनके वामांग पर देखकर विचलित है और दोनों में भेद कर रहा है। इसे सांकेतिक रूप से समझाने के लिए शिवजी ने तत्काल अर्धनारीश्वर स्वरूप धारण कर लिया – जिसमें जगदंबा पूरी तरह से उनमें विलीन हो गईं। अब शिवजी का दाहिना भाग पुरुष रूप में और बायां भाग स्त्री रूप में दिखने लगा।

मूर्खतापूर्ण प्रयास और माता का श्राप

अब ऋषि भृंगी की योजना पर पानी फिर गया। परंतु उनका हठ अब सीमाओं को लांघने लगा था और भगवान के प्रति भी अविनय में बदल रहा था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी जिद पूरी करने के लिए एक और मूर्खतापूर्ण कदम उठाया।

इस बार ऋषि भृंगी ने चूहे का रूप धारण कर लिया और भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप को कुतरकर एक-दूसरे से अलग करने का प्रयास किया। यह देखकर महादेव के परम भक्त की इस धृष्टता को लगातार सहन करती आ रही जगदंबा का धैर्य टूट गया।

उन्होंने भृंगी को श्राप दिया: “हे ऋषि भृंगी! तुम सृष्टि के आदि नियमों का उल्लंघन कर रहे हो। यदि तुम मातृशक्ति का सम्मान करने में अपना अपमान समझते हो, तो इसी क्षण तुम्हारे शरीर से तुम्हारी माता का अंश अलग हो जाएगा।”

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श्राप का प्रभाव और शिव की करुणा

यह श्राप सुनकर स्वयं महादेव भी व्याकुल हो उठे। ऋषि भृंगी की बुद्धि भले ही भ्रमित हो गई थी, परंतु महादेव जानते थे कि इस श्राप का अर्थ कितना गंभीर है।

शरीर विज्ञान की तांत्रिक व्याख्या के अनुसार, मनुष्य के शरीर में हड्डियां और मांसपेशियां पिता से प्राप्त होती हैं, जबकि रक्त और मांस माता के अंश से मिलते हैं। श्राप के प्रभाव से भृंगी की दुर्दशा हो गई – उनके शरीर से तत्काल रक्त और मांस अलग हो गए। शरीर में बची रह गईं केवल हड्डियां और मांसपेशियां।

मृत्यु तो उन्हें हो नहीं सकती थी, क्योंकि वे अविमुक्त कैलाश क्षेत्र में थे और स्वयं सदाशिव और महामाया उनके समक्ष थे। उनके प्राण हरने के लिए यमदूत वहां पहुंचने का साहस नहीं कर सकते थे। असहनीय पीड़ा से भृंगी व्याकुल होने लगे।

ज्ञानोदय और क्षमा याचना

यह श्राप आदिशक्ति जगदंबा का दिया हुआ था। उन्होंने यह श्राप ऋषि भृंगी की भेदबुद्धि को सही मार्ग पर लाने के लिए दिया था, इसीलिए महादेव भी बीच में नहीं पड़े।

इस श्राप का सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि असहनीय पीड़ा में पड़कर ऋषि भृंगी को अहसास हुआ कि पितृशक्ति किसी भी परिस्थिति में मातृशक्ति से अलग या श्रेष्ठ नहीं है। माता और पिता मिलकर ही इस शरीर का निर्माण करते हैं, इसलिए दोनों ही पूजनीय हैं।

इस ज्ञानोदय के पश्चात, ऋषि भृंगी ने अत्यधिक पीड़ा से तड़पते हुए जगदंबा से क्षमा याचना और प्रार्थना की। माता तो करुणामयी हैं – उन्होंने तुरंत उन पर कृपा की और उनकी पीड़ा समाप्त करने का निश्चय किया।

अनोखा वरदान – तीसरा पैर

माता ने अपना श्राप वापस लेने का प्रयास किया, लेकिन धन्य थे भक्त ऋषि भृंगी भी। उन्होंने माता को श्राप वापस लेने से रोका। उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, “माता, मेरी पीड़ा दूर करके आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। परंतु मुझे इसी स्वरूप में रहने दीजिए। मेरा यह रूप संसार के लिए एक शिक्षाप्रद उदाहरण होगा। इस सृष्टि में कोई भी मेरी तरह भ्रम का शिकार होकर माता और पिता को एक-दूसरे से अलग समझने की भूल नहीं करेगा। मैंने इतना अपराध किया, फिर भी आपने मुझ पर अनुग्रह किया। अब मैं एक जीवित उदाहरण बनकर सदैव आपके समीप रहूंगा।”

भक्त का यह कथन सुनकर महादेव और जगदंबा दोनों प्रसन्न हो गए। अर्धनारीश्वर स्वरूप धारण किए हुए माता जगदंबा और पिता महादेव ने तुरंत ऋषि भृंगी को अपने गणों में प्रमुख स्थान प्रदान किया।

ऋषि भृंगी चलने-फिरने में सक्षम हो सकें, इसलिए उन्हें तीसरा पैर भी दिया गया। इस तीसरे पैर से वे अपना भार संभालकर शिव-पार्वती के साथ चलते हैं।

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शिव-शक्ति का अद्वैत संदेश

अर्धनारीश्वर भगवान ने ऋषि भृंगी से कहा, “हे ऋषि भृंगी! तुम सदा हमारे साथ रहोगे। तुम्हारी उपस्थिति इस जगत को यह संदेश देगी कि हर जीव में जितना अंश पुरुष का है, उतना ही अंश नारी का भी है। नारी और पुरुष में भेद करने वाले की स्थिति तुम्हारे जैसी हो जाती है।”

उन्होंने आगे कहा, “पुरुष और स्त्री मिलकर ही संसार को आगे बढ़ाते हैं। दोनों समान अंश के अधिकारी हैं। यही सत्य प्रदर्शित करने के लिए मैंने अर्धनारीश्वर रूप धारण किया है। स्त्री और पुरुष दोनों का अपना-अपना स्थान और अस्तित्व है। इसे नकारने वाले को शिव और शिवा में से किसी की भी कृपा प्राप्त नहीं होती। वह प्राणी मृत्युलोक में सदा शिव-शिवा की कृपा के लिए तरसता ही विदा हो जाएगा।”

इस प्रकार ऋषि भृंगी को वह स्थान प्राप्त हुआ, जिसे पाने के लिए इंद्र जैसे देवता भी लालायित रहते हैं।

सृष्टि की रचना – शिव का अर्धनारीश्वर रूप

संसार में मैथुनी सृष्टि की व्यवस्था स्वयं शिवजी ने प्रदान की है। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्मा को अपना अर्धनारीश्वर स्वरूप दिखाया। इसे देखकर ही ब्रह्मा ने नारी की कल्पना की और नर-नारी के संयोग से सृष्टि रचना की व्यवस्था स्थापित की।

अर्थात् नर और नारी मिलकर सूक्ष्म रूप से ब्रह्मा की भांति सृष्टिकर्ता बन जाते हैं। तत्पश्चात् शिव ने जगदंबा के साथ विवाह करके मानव समाज में विवाह संस्था की स्थापना की। सर्वप्रथम विवाह शिव और जगदंबा का ही माना जाता है।

निष्कर्ष – अधूरी भक्ति का परिणाम

यह थी तीन पैर वाले ऋषि भृंगी और माता पार्वती के श्राप की रहस्यमय कथा। यह आख्यान हमें सिखाती है कि अधूरी भक्ति, चाहे वह कितनी भी गहन क्यों न हो, पूर्णता के अभाव में अपूर्ण ही रहती है।

यह कहानी हमें शिव और शक्ति के अविभाज्य संबंध को समझने की प्रेरणा देती है। जैसे शरीर में माता और पिता दोनों के अंश होते हैं, वैसे ही ब्रह्मांड में भी शिव और शक्ति अविभाज्य हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना अधूरी है।

ऋषि भृंगी की कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति समग्र होती है, न कि एकांगी। हमें जीवन के सभी पहलुओं को स्वीकार करना चाहिए और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अहंकार और एकपक्षीय सोच हमें अधूरा बना देती है, जैसे ऋषि भृंगी तीन पैरों पर चलने को अभिशप्त हो गए।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. ऋषि भृंगी के तीन पैर क्यों थे?

ऋषि भृंगी के तीन पैर इसलिए थे क्योंकि माता पार्वती के श्राप से उनके शरीर से मांस और रक्त (माता का अंश) अलग हो गया था। इससे वे खड़े नहीं रह पा रहे थे। उनकी दुर्दशा देखकर भगवान शिव ने उन्हें तीसरा पैर दिया, जिससे वे एक तिपाई की तरह खड़े हो सकें और चल-फिर सकें।

2. माता पार्वती ने ऋषि भृंगी को श्राप क्यों दिया?

माता पार्वती ने ऋषि भृंगी को श्राप इसलिए दिया क्योंकि वे केवल भगवान शिव की पूजा करते थे और माता पार्वती को पूरी तरह नजरअंदाज करते थे। जब शिव ने अर्धनारीश्वर रूप धारण किया, तब भी भृंगी ने चूहे का रूप धारण करके उस रूप को कुतरकर अलग करने का प्रयास किया, जो सृष्टि के मूल नियमों का उल्लंघन था।

3. भृंगी के नाम का क्या अर्थ है?

‘भृंग’ का अर्थ है ‘भौंरा’ या ‘भ्रमर’। जैसे भौंरा केवल कमल के मधु का पान करता है और अन्य फूलों पर नहीं जाता, वैसे ही भृंगी केवल शिव की आराधना में लीन रहते थे और अन्य देवताओं को स्वीकार नहीं करते थे। इस एकनिष्ठ प्रवृत्ति के कारण उन्हें ‘भृंगी’ नाम दिया गया।

4. अर्धनारीश्वर रूप का क्या महत्व है?

अर्धनारीश्वर रूप शिव और शक्ति के अविभाज्य संबंध का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि नर और नारी सृष्टि के दो अभिन्न अंग हैं। इस रूप में शरीर का दाहिना भाग पुरुष (शिव) और बायां भाग स्त्री (पार्वती) का होता है। यह रूप सिखाता है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही समान महत्व रखते हैं और एक के बिना दूसरा अधूरा है।

5. भृंगी की कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

भृंगी की कहानी से हमें निम्नलिखित शिक्षाएँ मिलती हैं:

  • एकांगी दृष्टिकोण से बचें और जीवन के सभी पहलुओं को स्वीकार करें
  • अहंकार और हठ मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं
  • शिव और शक्ति (पुरुष और प्रकृति) अभिन्न हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा है
  • गलतियों से सीखकर अपने विचारों को परिवर्तित करना ही सच्चा ज्ञान है
  • माता और पिता दोनों का सम्मान समान रूप से करना चाहिए

6. क्या ऋषि भृंगी का उल्लेख किसी प्राचीन ग्रंथ में मिलता है?

हां, ऋषि भृंगी का उल्लेख शिव पुराण, लिंग पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विशेष रूप से शिव पुराण के रुद्र संहिता में भृंगी की कथा विस्तार से वर्णित है। इसके अलावा, तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में शिव विवाह के प्रसंग में भी भृंगी का उल्लेख किया है।

7. शिव गणों में भृंगी का क्या स्थान है?

भृंगी को शिव के प्रमुख गणों में गिना जाता है। जहां शिव होते हैं, वहां भृंगी का वास स्वयं ही होता है। वे शिव-पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं और उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं। भृंगी को शिव के अनन्य भक्त के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

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