क्या आपने कभी सोचा है कि पुरुष जाति आज जो जीवन के कुछ कष्ट झेल रही है, उसका कारण क्या है? क्या आप जानते हैं कि पौराणिक कथाओं में इसका उत्तर छिपा है? हमारी संस्कृति में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जो हमारे जीवन के रहस्यों को उजागर करती हैं। आज हम आपको ऐसी ही एक अद्भुत कथा सुनाने जा रहे हैं – देवी संध्या की कहानी और उनके द्वारा दिए गए तीन श्रापों की।
देवी संध्या का जन्म
सृष्टि के आरंभ में, जब ब्रह्मांड का निर्माण चल रहा था, ब्रह्मा जी कमल के आसन पर विराजमान थे। अपने ध्यान की अवस्था में, उनके मन से एक अतिसुंदर कन्या का जन्म हुआ। चूँकि यह कन्या ब्रह्मा जी के मानस से उत्पन्न हुई थी, इसलिए इसे मानस कन्या कहा गया। और क्योंकि वह ध्यान (संध्या) के समय प्रकट हुई थी, इसलिए उसका नाम ‘संध्या’ रखा गया।
“जब सृष्टि का आरंभ हो रहा था, तब ब्रह्मा जी के मन से त्रिभुवन सुंदरी कन्या का जन्म हुआ।”
ब्रह्मा जी का मोह और संध्या का संताप
जब ब्रह्मा जी ने उस अलौकिक सुंदरता वाली कन्या को देखा, तो उनका मन क्षणिक रूप से विचलित हो गया। उनकी दृष्टि में कामभाव उत्पन्न हो गया। यह भगवान की एक विचित्र लीला थी, जिसके पीछे एक गहरा उद्देश्य छिपा था।
ब्रह्मा जी की इस दृष्टि से देवी संध्या अत्यंत व्यथित हो गईं। उनका तेज क्षीण हो गया और उन्होंने तुरंत वह स्थान छोड़ दिया। यह घटना पूरे ब्रह्मांड के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाली थी।
संध्या की तपस्या और महर्षि वशिष्ठ से मिलन
दुःखी होकर देवी संध्या चंद्रभाग पर्वत की ओर चली गईं। वहां से वे पृथ्वी लोक में बृह लोहित नामक सरोवर के पास पहुंचीं। उनके मन में एक ही प्रश्न था – वे किसकी आराधना करें?
इसी समय महर्षि वशिष्ठ का वहां आगमन हुआ। उन्होंने देवी संध्या से उनके वहां होने का कारण पूछा। देवी संध्या ने अपनी पूरी व्यथा सुनाई और मार्गदर्शन मांगा।
महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें भगवान नारायण की आराधना करने का सुझाव दिया और कहा:
“हे देवी, तुम ‘ॐ नमो नारायणाय नमः’ इस महामंत्र का जाप करो। जब तक भगवान के दर्शन न हों, इस मंत्र का जाप करते रहो।”
चार युगों की कठोर तपस्या
महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन पर, देवी संध्या ने भगवान विष्णु की आराधना शुरू कर दी। उन्होंने चार युगों तक निरंतर कठोर तपस्या की।
इतनी लंबी और कठोर तपस्या देखकर सभी देवता आश्चर्यचकित रह गए। अंततः भगवान विष्णु उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए।
देवी संध्या के तीन वरदान और तीन श्राप
प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने संध्या से वरदान मांगने को कहा। देवी संध्या ने तीन इच्छाएँ व्यक्त कीं, जो आज के पुरुषों के लिए तीन श्राप बन गए:
- प्रथम श्राप: संसार में कोई भी प्राणी जन्म लेते ही कामभाव से युक्त न हो।
- द्वितीय श्राप: उनका पतिव्रत धर्म सदा अखंड और अडिग रहे।
- तृतीय श्राप: जो भी पुरुष उनकी ओर कामभाव से देखे, वह नपुंसक हो जाए।
भगवान विष्णु ने इन इच्छाओं को स्वीकार करते हुए कहा:
“हे कल्याणी, तुमने संसार के कल्याण के लिए उत्तम वर मांगे हैं। आज से संसार के सभी प्राणियों में कामभाव केवल कौमार्य अवस्था के बाद ही उत्पन्न होगा।”

संध्या का महायज्ञ में प्रवेश
भगवान विष्णु ने संध्या को बताया कि चंद्रभागा नदी के तट पर महर्षि मेधातिथि एक बारह वर्षीय यज्ञ कर रहे हैं। उन्होंने संध्या को वहां जाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का सुझाव दिया।
भगवान विष्णु ने अपने दिव्य हाथों से संध्या को स्पर्श किया, जिससे उनका शरीर आटे का बन गया, ताकि यज्ञ अपवित्र न हो।
संध्या ने महर्षि वशिष्ठ का स्मरण करते हुए यज्ञ की अग्नि में प्रवेश किया।
संध्या का अद्भुत परिवर्तन
अग्निदेव ने भगवान की आज्ञा से संध्या के शरीर को सूर्य मंडल पर स्थापित किया। सूर्यदेव ने उनके शरीर को दो भागों में विभाजित कर दिया:
- शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या बना
- शेष भाग सायं संध्या के रूप में स्थापित हुआ
इसी कारण आज भी सूर्योदय और सूर्यास्त के समय को संध्या काल कहा जाता है!
पुनर्जन्म और अरुंधती का रूप
भगवान विष्णु के वरदान से देवी संध्या ने अपने अगले जन्म में अरुंधती के रूप में जन्म लिया और महर्षि वशिष्ठ की पत्नी बनीं। इस प्रकार उनकी इच्छा पूर्ण हुई।
आज भी प्रभावी हैं संध्या के तीन श्राप
भगवान शिव ने नारदजी को बताया कि आज भी देवी संध्या के श्राप का प्रभाव जारी है:
- कोई भी प्राणी जन्म से कामभाव से युक्त नहीं होता, यह भाव केवल कौमार्य अवस्था के बाद ही उत्पन्न होता है।
- पतिव्रता धर्म का महत्व सनातन है।
- बुरी दृष्टि रखने वाले पुरुषों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
निष्कर्ष
देवी संध्या की यह कथा हमें बताती है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में न केवल ज्ञान का भंडार है, बल्कि वे हमारे जीवन के अनेक रहस्यों को भी उजागर करते हैं। इस कथा से हमें पवित्र आचरण और आत्म-संयम का महत्व समझने में मदद मिलती है।
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