जानिए कैसे हुआ भीष्म पितामह का जन्म? आखिर माता गंगा के कितने पुत्र थे और पुत्र होते ही उन्हें गंगा में क्यों बहा देती थी?
क्या आपने कभी सोचा है कि महाभारत के सबसे शक्तिशाली योद्धा भीष्म पितामह का जन्म कैसे हुआ था? या फिर माता गंगा ने अपने नवजात शिशुओं को नदी में क्यों बहा दिया था? हिंदू धर्म की इस रहस्यमयी कथा में छिपे हैं कई ऐसे राज, जो आपको अचंभित कर देंगे।
आज हम आपको बताएंगे वह अद्भुत कहानी जिसमें स्वर्ग, पृथ्वी और शाप का अजीब संगम है। यह कहानी है राजा शांतनु और देवी गंगा के प्रेम की, आठ वसुओं के शाप की और एक ऐसे वीर योद्धा के जन्म की जिसने अपने प्रण के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया।
राजा शांतनु और देवी गंगा का मिलन

हस्तिनापुर के महाराज शांतनु एक दिन शिकार के लिए गए थे। वन में घूमते हुए उन्होंने गंगा नदी के किनारे एक अलौकिक सुंदरी को देखा। वह स्त्री इतनी सुंदर थी कि शांतनु उसे देखते ही मोहित हो गए। वह स्त्री कोई और नहीं, बल्कि साक्षात देवी गंगा थीं, जो मानव रूप में पृथ्वी पर आई थीं।
शांतनु ने उस सुंदरी से विवाह का प्रस्ताव रखा। गंगा ने एक शर्त पर विवाह के लिए हामी भरी। उन्होंने कहा, “मैं आपसे विवाह करूँगी, लेकिन आप मेरे किसी भी कार्य पर प्रश्न नहीं उठाएंगे और न ही मुझे रोकेंगे। अगर आपने ऐसा किया तो मैं आपको छोड़कर चली जाऊँगी।”
प्रेम में पागल राजा शांतनु ने बिना सोचे-समझे यह शर्त मान ली और दोनों का विवाह हो गया।
वसुओं का शाप और उनका उद्धार
इस कहानी का मूल कारण था आठ वसुओं का शाप। वसु स्वर्ग के देवता हैं जिन्हें महर्षि वशिष्ठ का शाप लगा था।
क्या था यह प्रकरण? एक बार वसुओं की पत्नियों में से एक ने कामधेनु गाय के बछड़े को देखा और उसे पाने की इच्छा जताई। उसके पति और अन्य सात वसुओं ने मिलकर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम से उस बछड़े को चुरा लिया। जब वशिष्ठ जी को यह पता चला, तो उन्होंने क्रोधित होकर सभी आठ वसुओं को शाप दे दिया कि वे मर्त्य लोक में मनुष्य के रूप में जन्म लेंगे।
वसुओं ने महर्षि से क्षमा याचना की। वशिष्ठ ने दया करके कहा कि सात वसु जन्म लेते ही मुक्त हो जाएंगे, लेकिन जिस वसु (द्यौ) ने चोरी का नेतृत्व किया था, उसे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहना होगा और अनेक कष्ट झेलने होंगे।
वसुओं ने देवी गंगा से प्रार्थना की कि वह उन्हें अपनी संतान के रूप में जन्म दे और जन्म के तुरंत बाद उन्हें जल में समाहित कर मुक्ति प्रदान करे। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और यही कारण था कि गंगा ने राजा शांतनु से विवाह किया।
गंगा द्वारा अपने पुत्रों को बहाना

विवाह के पश्चात गंगा और शांतनु सुखपूर्वक रहने लगे। समय बीतने पर गंगा ने अपने पहले पुत्र को जन्म दिया। लेकिन जन्म के तुरंत बाद, उन्होंने बच्चे को उठाया और गंगा नदी में बहा दिया। शांतनु यह देखकर स्तब्ध रह गए, लेकिन अपनी शर्त के कारण वे कुछ नहीं बोल सके।
इसी प्रकार गंगा ने अपने दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें पुत्र को भी जन्म के तुरंत बाद नदी में बहा दिया। प्रत्येक बार शांतनु का हृदय टूटता, परंतु वे अपनी शर्त के कारण मौन रहे।
दरअसल, गंगा अपनी प्रतिज्ञा निभा रही थीं। वे एक-एक करके सातों वसुओं को मुक्ति दे रही थीं, जो शाप के कारण उनके पुत्र के रूप में जन्मे थे।
आठवें पुत्र का जन्म और शांतनु का विरोध
जब आठवें पुत्र का जन्म हुआ, तो शांतनु अपने आप को रोक नहीं पाए। जैसे ही गंगा ने बच्चे को उठाया और नदी की ओर बढ़ी, शांतनु ने उन्हें रोक दिया और कहा, “रुको! मैं अपने इस पुत्र को भी खोना नहीं चाहता। तुम क्यों हमारे बच्चों को मार रही हो?”
गंगा ने कहा, “राजन, आपने अपनी शर्त तोड़ दी है। अब मुझे आपको छोड़कर जाना होगा। लेकिन चूंकि आपने मुझे आठवें पुत्र को बहाने से रोक दिया है, इसलिए यह बच्चा आपके पास रहेगा। यह बच्चा साधारण नहीं है, यह आठ वसुओं में से एक ‘द्यौ’ का अवतार है, जिसे दीर्घ मानव जीवन का शाप मिला था।”
गंगा ने आगे बताया कि वे पहले सात बच्चों को मुक्ति दे चुकी हैं, जो वास्तव में शापित वसु थे। और यह आठवां पुत्र, जो द्यौ वसु का अवतार है, एक महान योद्धा बनेगा और अद्भुत कार्य करेगा।
देवव्रत का पालन-पोषण और शिक्षा
गंगा ने कहा, “मैं इस बच्चे का नाम देवव्रत रखूँगी और इसका पालन-पोषण करूँगी। जब यह शिक्षा प्राप्त कर लेगा, तब मैं इसे आपके पास वापस भेज दूंगी।” यह कहकर गंगा अपने पुत्र देवव्रत को लेकर चली गईं।
गंगा ने देवव्रत को स्वर्ग में ले जाकर उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने देवव्रत को युद्ध विद्या, धर्मशास्त्र, राजनीति और अन्य विषयों का ज्ञान दिलवाया। उनकी शिक्षा के लिए देवराज इंद्र, देवगुरु बृहस्पति, और महर्षि परशुराम जैसे महान गुरुओं को नियुक्त किया गया।
देवव्रत ने अपने गुरुओं से सभी शास्त्रों और अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। वे अद्वितीय धनुर्धर बन गए और युद्ध कला में निपुण हो गए। साथ ही, उन्होंने धर्म और नीति के सिद्धांतों को भी गहराई से समझा।
शांतनु से पुनर्मिलन और देवव्रत का लौटना

जब देवव्रत 16 वर्ष के हुए, तब गंगा ने उन्हें राजा शांतनु के पास वापस भेज दिया। एक दिन जब शांतनु गंगा नदी के किनारे घूम रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक तेजस्वी युवक ने अपने तीरों से नदी के बहाव को रोक दिया है। शांतनु उस युवक की अद्भुत शक्ति देखकर आश्चर्यचकित हो गए।
तभी गंगा प्रकट हुईं और कहा, “राजन, यह आपका पुत्र देवव्रत है, जिसकी शिक्षा पूरी हो गई है। अब यह आपके साथ रहेगा।” यह कहकर गंगा अंतर्ध्यान हो गईं।
शांतनु अपने पुत्र को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे अपने साथ हस्तिनापुर ले गए। देवव्रत के गुण और कौशल देखकर शांतनु ने उन्हें युवराज घोषित कर दिया।
सत्यवती से शांतनु का प्रेम और भीष्म प्रतिज्ञा
कुछ समय बाद, शांतनु यमुना नदी के किनारे घूमते हुए एक मछुआरे की कन्या सत्यवती से मिले। सत्यवती की सुंदरता और सुगंध से प्रभावित होकर शांतनु उससे विवाह करना चाहते थे। जब शांतनु ने सत्यवती के पिता (वास्तव में पालक पिता) से विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उसने एक शर्त रखी – “सत्यवती से उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा, न कि देवव्रत।”
शांतनु यह शर्त मानने को तैयार नहीं थे और निराश होकर महल लौट आए। देवव्रत को अपने पिता की उदासी का कारण पता चला, तो वे स्वयं सत्यवती के पिता से मिलने गए। उन्होंने उससे कहा कि वे स्वयं राजपद का त्याग करते हैं और सत्यवती के पुत्र ही हस्तिनापुर के राजा होंगे।
लेकिन सत्यवती के पिता ने कहा, “मुझे तुम्हारे शब्दों पर विश्वास है, लेकिन तुम्हारे पुत्र भविष्य में अपने अधिकार के लिए युद्ध कर सकते हैं।” यह सुनकर देवव्रत ने एक कठोर प्रतिज्ञा ली – “मैं आज से आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा और कभी विवाह नहीं करूँगा। मेरे कोई संतान नहीं होगी जो राज्य पर दावा करे।”
इस महान त्याग के कारण देवलोक से पुष्पवर्षा हुई और देवताओं ने उन्हें “भीष्म” की उपाधि दी, जिसका अर्थ है “भयंकर प्रतिज्ञा करने वाला”। तभी से देवव्रत भीष्म के नाम से जाने जाने लगे।
भीष्म का जीवन और महाभारत में भूमिका
भीष्म ने अपने जीवन में अनेक कठिन परिस्थितियों का सामना किया, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग रहे। उन्होंने हस्तिनापुर के राजवंश की सेवा में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। वे विचित्रवीर्य और पांडु के पिता धृतराष्ट्र के संरक्षक बने और हस्तिनापुर के राजकाज को संभाला।
महाभारत युद्ध में, भीष्म कौरवों की ओर से सेनापति बने। उन्हें मृत्यु का वरदान प्राप्त था, अर्थात वे स्वेच्छा से ही मृत्यु का वरण कर सकते थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के बाण से गंभीर रूप से घायल होने के बाद, वे बाणों की शय्या पर पड़े रहे और उत्तरायण आने तक जीवित रहे। इस दौरान उन्होंने युधिष्ठिर को राजधर्म, आपदधर्म और मोक्षधर्म का ज्ञान दिया।
उत्तरायण आने पर भीष्म ने अपने प्राण त्याग दिए और स्वर्ग सिधार गए। उनका जीवन धर्म, सत्य और त्याग का अद्भुत उदाहरण रहा।

माता गंगा के आठ पुत्र और उनका महत्व
माता गंगा के कुल आठ पुत्र थे, जिनमें से पहले सात शापित वसु थे जिन्हें जन्म के तुरंत बाद मुक्ति दे दी गई। केवल आठवां पुत्र देवव्रत (भीष्म) ही पृथ्वी पर रहा।
गंगा के पहले सात पुत्रों के नाम थे – धर, ध्रुव, सोम, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास। ये सभी आठ वसुओं के अवतार थे, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ का शाप लगा था।
आठवें पुत्र देवव्रत (द्यौ वसु का अवतार) ने महाभारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके त्याग और धर्मनिष्ठा ने उन्हें अमर बना दिया।
भीष्म पितामह से हमें क्या सीख मिलती है?
भीष्म पितामह के जीवन से हमें अनेक मूल्यवान सीख मिलती हैं:
- वचन का पालन: भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा को जीवनभर निभाया, चाहे कितनी भी कठिनाइयां आईं।
- त्याग की भावना: उन्होंने राज्य और वैवाहिक सुख का त्याग अपने पिता के लिए किया।
- कर्तव्यनिष्ठा: अपने कर्तव्य के प्रति उनकी निष्ठा अटूट थी।
- ज्ञान का महत्व: उन्होंने अपने जीवन में गहन ज्ञान अर्जित किया और दूसरों को भी सिखाया।
- धर्म का पालन: हर परिस्थिति में उन्होंने धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा।
निष्कर्ष
माता गंगा और राजा शांतनु की अद्भुत प्रेम कथा से जन्मे भीष्म पितामह की जीवन गाथा हमें धर्म, कर्तव्य और त्याग का अनूठा संदेश देती है। वसुओं के शाप से शुरू हुई यह कहानी भारतीय संस्कृति में गहराई से बसी है।
गंगा ने अपने सात पुत्रों को नदी में बहाकर उन्हें शाप से मुक्ति दिलाई, जबकि आठवें पुत्र देवव्रत ने अपने महान त्याग से भीष्म पितामह के रूप में अमरता प्राप्त की। उनका जीवन हमें सिखाता है कि कैसे धर्म और कर्तव्य के मार्ग पर चलकर हम महानता प्राप्त कर सकते हैं।
भीष्म पितामह की यह कहानी हमें अपने वचनों का पालन करने और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखने की प्रेरणा देती है। उनका जीवन हमारे लिए एक आदर्श है जो हमें सिखाता है कि सच्चे त्याग और निष्ठा का मूल्य क्या होता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. माता गंगा ने अपने पुत्रों को क्यों बहाया था?
माता गंगा ने अपने पहले सात पुत्रों को इसलिए बहाया था क्योंकि वे वास्तव में शापित वसु थे, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ का शाप लगा था। गंगा ने उन्हें जल में समाहित करके शाप से मुक्त किया था।
2. भीष्म पितामह का असली नाम क्या था?
भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था। उनकी भयंकर प्रतिज्ञा के कारण उन्हें “भीष्म” की उपाधि मिली।
3. भीष्म ने कौन सी प्रतिज्ञा ली थी?
भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचर्य और राजगद्दी का त्याग करने की प्रतिज्ञा ली थी, ताकि उनके पिता शांतनु सत्यवती से विवाह कर सकें।
4. माता गंगा के कितने पुत्र थे?
माता गंगा के कुल आठ पुत्र थे, जिनमें से सात को जन्म के तुरंत बाद नदी में बहा दिया गया था और केवल आठवां पुत्र देवव्रत (भीष्म) ही जीवित रहा।
5. वसु कौन होते हैं और उन्हें शाप क्यों मिला?
वसु स्वर्ग के देवता हैं, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ का शाप इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने महर्षि की कामधेनु गाय के बछड़े को चुरा लिया था।
6. भीष्म की मृत्यु कैसे हुई?
महाभारत युद्ध में अर्जुन के बाणों से गंभीर रूप से घायल होने के बाद भीष्म बाणों की शय्या पर पड़े रहे और उत्तरायण आने पर उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्याग दिए।
7. राजा शांतनु और माता गंगा के विवाह की शर्त क्या थी?
शर्त यह थी कि शांतनु कभी भी गंगा के किसी भी कार्य पर प्रश्न नहीं उठाएंगे और न ही उन्हें रोकेंगे। अगर ऐसा किया तो गंगा उन्हें छोड़कर चली जाएंगी।
8. भीष्म को मृत्यु का वरदान किसने दिया था?
भीष्म को उनके पिता शांतनु ने मृत्यु का वरदान दिया था, जिसके अनुसार वे स्वेच्छा से ही मृत्यु का वरण कर सकते थे।
9. भीष्म ने अपनी शिक्षा किससे प्राप्त की?
भीष्म ने देवराज इंद्र, देवगुरु बृहस्पति और महर्षि परशुराम जैसे महान गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी।
10. क्या भीष्म पितामह कौरव या पांडव किसी का पक्ष लेते थे?
भीष्म पितामह व्यक्तिगत रूप से दोनों से प्रेम करते थे, लेकिन अपने कर्तव्य के कारण महाभारत युद्ध में उन्हें कौरवों का साथ देना पड़ा।
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