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शनि देव की अनसुलझी शक्तियाँ: सूर्य देव से उनका भय क्यों?

परिचय: शनि और सूर्य के शत्रुता की अनकही कहानी

हिन्दू पौराणिक कथाओं में शनि देव का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। न्याय, कर्म और प्रतिफल के देवता के रूप में पूजे जाने वाले शनि देव, हिन्दू ज्योतिष में सबसे शक्तिशाली और भयावह ग्रह माने जाते हैं। उनकी वक्र दृष्टि का प्रभाव इतना प्रबल है कि इससे सूर्य का तेज तक क्षीण हो जाता है।

परंतु क्या आप जानते हैं कि इतने शक्तिशाली शनि देव के पिता सूर्य देव ने उनका त्याग क्यों किया था? वह कौन सी घटना थी जिसने पिता-पुत्र के बीच ऐसी शत्रुता पैदा कर दी कि आज भी दोनों एक-दूसरे से दूर रहते हैं? आज हम इस रहस्यमय संबंध की गहराई में जाएंगे और जानेंगे शनि देव की अनसुलझी शक्तियों और उस अदृश्य भय के बारे में जो सूर्य देव को आज भी अपने पुत्र से दूर रखता है।

शनि देव का जन्म और उनकी माता छाया – विस्तृत कथा

स्कंद पुराण के काशीखण्ड के अनुसार, शनि देव की कहानी सूर्य देव और देवी संज्ञा के विवाह से शुरू होती है। भगवान विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य देव के साथ संपन्न हुआ था। दोनों एक-दूसरे से अत्यंत प्रेम करते थे। विवाह के उपरांत उनके छह संतानें हुईं – वैवस्वत मनु, यमराज, देवी यमुना, अश्विनी कुमार और रेवंत। सूर्य देव अपने परिवार से अत्यंत प्रसन्न थे।

परंतु देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव के तेज को सहन करना अत्यंत कष्टदायी था। इसलिए उन्होंने एक अनोखा उपाय खोजा। देवी संज्ञा ने अपनी एक प्रतिरूप को जन्म दिया, जिसका नाम था देवी छाया (अपनी परछाई)। उन्होंने छाया को आदेश दिया:

“सुनो देवी छाया, मैं सूर्य देव की अर्धांगिनी देवी संज्ञा हूं और तुम मेरी ही परछाई हो। मैं अपने स्वामी सूर्यदेव के तेज को सहने में असमर्थ हो रही हूं। मुझे उनके तेज को सहन करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए घोर तप करना होगा, जिसमें वर्षों का समय लगेगा। देवी छाया, मैं चाहती हूं कि किसी को भी इस बात का ज्ञान न हो। इसलिए जब तक मैं नहीं लौटती, तब तक मेरे स्वामी और संतानों का सारा दायित्व मैं तुम्हें सौंपती हूं।”

देवी छाया ने आदर से उत्तर दिया, “आप निश्चिंत होकर अपनी तपस्या पूर्ण करें। मैं आपके कहे अनुसार सभी का अच्छे से पालन-पोषण करूंगी।”

संज्ञा ने यह भी कहा, “देवी छाया, तुम मेरी परछाई हो, इसलिए मेरी अनुपस्थिति में मेरे स्वामी पर तुम्हारा मेरे समान ही अधिकार होगा। और याद रहे, मेरी तपस्या पूर्ण होने के पश्चात तुम पुनः मुझमें ही समाहित हो जाओगी।”

इस प्रकार देवी संज्ञा तपस्या के लिए चली गईं और गहन तपस्या में लीन हो गईं। छाया ने सूर्य देव और उनकी सभी संतानों का पालन संज्ञा की भांति ही किया।

कुछ समय पश्चात, सूर्य देव को संदेह होने लगा। उन्होंने छाया से पूछा, “देवी संज्ञा, कुछ समय पूर्व तो आपके लिए मेरा तेज सहन करना काफी कष्टदायक था, परंतु अब आप किस प्रकार से मेरे तेज को इतनी सरलता से सहन कर रही हैं? कभी-कभी मुझे प्रतीत होता है, क्या आप मेरी पत्नी संज्ञा ही नहीं हैं?”

देवी छाया अपने वचन से बंधी होने के कारण सत्य नहीं बता सकीं और दुविधा में पड़ गईं। उन्होंने देवी संज्ञा को इस स्थिति से अवगत करवाने का निर्णय लिया और उन्हें खोजने वन पहुंचीं।

जब देवी छाया ने देवी संज्ञा को सारा वृत्तांत सुनाया, तब सूर्यदेव अपनी दिव्य दृष्टि से सब देख लेते हैं। विषय की गंभीरता को न समझते हुए वे तुरंत वहां पहुंचे और बिना पूर्ण सत्य जाने उसी क्षण देवी छाया का त्याग कर दिया। सूर्य देव देवी संज्ञा को अपने साथ ले गए।

उस समय शनि देव देवी छाया के गर्भ में थे और अपनी माता के साथ हो रहे अन्याय को देख रहे थे। इसी कारण वे माता के गर्भ से ही अत्यंत क्रोधित स्वभाव के हो गए।

सूर्य और शनि के बीच शत्रुता की प्रमुख घटना

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त्यागी जाने के बाद देवी छाया के समक्ष कोई मार्ग विशेष न रहा, तब उन्होंने महादेव की कठोर तपस्या की। कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव देवी छाया के सामने प्रकट हुए और बोले, “मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ, परंतु तुम्हें इस अवस्था में इतना कठोर तप नहीं करना चाहिए।”

देवी छाया ने उत्तर दिया, “हे महादेव, मेरे समक्ष कोई और मार्ग शेष ही नहीं था प्रभु। उस असहनीय अपमान में जलकर, आपके अतिरिक्त मुझे किसी और का स्मरण ही नहीं रहा। एक आप ही हैं जो मुझे न्याय देंगे।”

भगवान शिव ने कहा, “पुत्री, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारे गर्भ से एक तेजस्वी बालक का जन्म होगा। जिसे त्रिलोक में शनि के नाम से जाना जाएगा और वही बालक तुम्हें तुम्हारा अधिकार दिलाएगा।”

कुछ समय पश्चात, देवी छाया ने शनि नामक पुत्र को जन्म दिया। शनि देव जल्द ही युवावस्था में आए और अपनी माता से कहा, “माता, मैंने तुम्हारे गर्भ से ही तुम्हारे साथ हो रहे अन्याय को सुना है। किंतु आप तनिक भी चिंतित न हों। तुम्हारा यह पुत्र शनि तुम्हारे साथ हुए प्रत्येक अन्याय का बदला लेगा।”

जब शनि देव ने सूर्य देव को चुनौती दी

शनि देव अपनी माता को उनके अधिकार दिलाने के लिए सूर्य देव और माता संज्ञा के समक्ष जा पहुंचे। परंतु सूर्य देव ने उन्हें यह कहकर नकार दिया कि देवी छाया ने झूठ और छल का सहारा लेकर देवी संज्ञा का स्थान लिया था। इसके साथ ही सूर्य देव ने शनिदेव को भी अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया।

शनि देव ने अपने पिता सूर्य देव को समझाने का अत्यंत प्रयास किया, परंतु सूर्य देव ने शनि देव की एक न सुनी।

सूर्य देव के इस व्यवहार से शनि देव अत्यंत क्रोध से भर उठे। शनि देव ने सूर्य देव को चेतावनी दी और कहा, “अपनी शक्ति के मद में चूर हो चुके हैं आप। जिसके कारण आपको उचित और अनुचित का भेद समझ नहीं आ रहा है। परंतु अहंकार का परिणाम आपको भोगना ही होगा।”

सूर्य देव ने क्रोध में उत्तर दिया, “एक बालक में इतना क्रोध! कि वो क्रोध में इतना भी भूल गया कि वो किसे चुनौती दे रहा है। मैं तुम्हें प्रहार करने का एक अवसर देता हूँ। और अगर तुम्हारे प्रहार के पश्चात भी मैं अडिग रहा, तो आज मेरी अग्नि के तप से तुझे कोई नहीं बचा पायेगा।”

शनि की वक्र दृष्टि और उसका प्रभाव

इसके पश्चात शनि देव ने क्रोध में आकर सूर्य देव पर अपनी वक्र दृष्टि डाली। शनि देव की वक्र दृष्टि पड़ते ही सूर्य देव तेजहीन होकर बिलकुल काले पड़ गए। इसके साथ ही समस्त संसार अंधकार में लीन हो गया। पृथ्वी बर्फ के भांति जमने लगी, जिस कारण समस्त जीवों को अत्यंत पीड़ा होने लगी। जानवर ठंड से कांपने लगे। ये देखकर सभी देवता गण अत्यंत भयभीत हो गए। सूर्य देव के तेज विहीन हो जाने के कारण समस्त चराचर जगत में हाहाकार मच गया।

महादेव का हस्तक्षेप और संबंधों का समझौता

देवी संज्ञा जब यह सब देख रही थीं, तो भय और पश्चाताप से व्याकुल हो उठीं। उन्होंने विनम्रतापूर्वक देवी छाया से कहा, “देवी, मुझसे आपके साथ जो अन्याय हुआ, उसके लिए मैं दंड की अधिकारी हूँ। पर कृपा कर मेरे इस अपराध की सजा मेरे स्वामी सूर्यदेव को न दें। मैं आपसे आग्रह करती हूँ, अपने पुत्र शनिदेव को निर्देश दें कि वे अपनी वक्र दृष्टि सूर्यदेव से हटा लें। मैं वचन देती हूँ कि आपको और आपके पुत्र को उनका उचित अधिकार दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ूँगी।”

संज्ञा की विनती सुनकर देवी छाया ने अपने पुत्र शनिदेव को समझाने का प्रयास किया। किंतु माता की बात मानते हुए भी शनिदेव का ह्रदय शांत नहीं हुआ।

उन्होंने कहा, “मां, मैं आपके आदेश की अवहेलना नहीं करना चाहता, पर अब मेरी शक्तियाँ सूर्यदेव को पूर्ववत करने में असमर्थ हैं। कृपया मुझे क्षमा करें।”

यह सुनकर देवी छाया घबरा गईं और बोलीं, “पुत्र, यह तुम क्या कह रहे हो? सम्पूर्ण पृथ्वी बर्फ की चादर से ढँकने लगी है। यदि सूर्यदेव को उनका तेज नहीं लौटा, तो सृष्टि का विनाश निश्चित है। जीवन धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है। जब तुम इस स्थिति को सँभाल नहीं सकते थे, तो तुमने ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यों की?”

समस्त देवगण अब इस संकट की गंभीरता को समझ चुके थे। सभी को ज्ञात हो गया कि अब इस स्थिति का समाधान केवल महादेव ही कर सकते हैं। अतः उन्होंने महादेव का स्मरण किया।

जैसे ही महादेव वहाँ प्रकट हुए, शनिदेव ने उनके चरणों में झुककर प्रार्थना की, “प्रभो, कृपा कर मेरी सहायता करें।”

महादेव ने शनिदेव से कहा, “शनि, तुमने अपनी माता को न्याय दिलाने के लिए समस्त जगत को अंधकार में डुबो दिया, यह सर्वथा अनुचित है। तुम्हारे जैसे न्यायप्रिय देव को ऐसा आचरण शोभा नहीं देता।”

शनिदेव ने लज्जित होकर महादेव से क्षमा मांगी। महादेव ने करुणा दिखाते हुए सूर्यदेव को उनका तेज पुनः प्रदान कर दिया। और इस प्रकार, संसार में फिर से प्रकाश फैल गया और जीवन सामान्य हो गया।

हालांकि इस घटना के बाद सूर्यदेव और शनिदेव के बीच एक समझ विकसित हुआ, किंतु ज्योतिष के अनुसार वे आज भी एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं। जब शनिदेव की दृष्टि सूर्य पर पड़ती है, तो जातक के जीवन में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए दोनों ग्रहों की यह दूरी आज भी ज्योतिषीय महत्व रखती है।

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शनि देव का वैज्ञानिक महत्व

आधुनिक विज्ञान के अनुसार, शनि ग्रह सौर मंडल का छठा ग्रह है और आकार में सूर्य के बाद दूसरा सबसे बड़ा है। इसके चारों ओर चमकीले वलय हैं जो इसे एक अनोखा स्वरूप प्रदान करते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो शनि का प्रभाव पृथ्वी पर अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण पड़ता है। यह ज्वार-भाटा और मौसम में परिवर्तन का कारण बन सकता है।

शनि देव की अनोखी शक्तियां

1. साढ़े साती का प्रभाव

शनि देव की सबसे प्रसिद्ध शक्ति है उनकी “साढ़े साती”। जब शनि किसी व्यक्ति की राशि से पहले, उसकी अपनी राशि पर और उसके बाद वाली राशि पर गोचर करता है, तो यह समय लगभग साढ़े सात वर्ष का होता है। इस अवधि में व्यक्ति को अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।

साढ़े साती की अवधि में शनि व्यक्ति के कर्मों का फल देता है। यदि कोई व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो साढ़े साती उसके लिए वरदान साबित होती है, परंतु बुरे कर्मों का फल बुरे रूप में मिलता है।

2. दृष्टि दोष

शनि देव की दृष्टि इतनी शक्तिशाली है कि जिस पर भी पड़ती है, उसका अनिष्ट हो सकता है। उनकी दृष्टि का प्रभाव सातवीं, तीसरी और दसवीं स्थिति पर सबसे अधिक होता है।

कहा जाता है कि जब शनि देव ने जन्म के समय अपनी दृष्टि सूर्य पर डाली थी, तब सूर्य का तेज क्षीण हो गया था। इसी कारण शनि देव को “छाया पुत्र” भी कहा जाता है।

3. न्याय और कर्म का फल

शनि देव न्याय और कर्म के देवता हैं। वे हर व्यक्ति को उसके कर्मों का फल अवश्य देते हैं। इसलिए उन्हें “न्यायाधीश” भी कहा जाता है। उनका न्याय निष्पक्ष होता है, चाहे वह देवता हो या मनुष्य।

पौराणिक कथाओं में कई उदाहरण हैं जहां शनि देव ने महान देवताओं को भी उनके कर्मों का फल दिया है। यही कारण है कि लोग शनि की पूजा करके अपने बुरे कर्मों से मुक्ति पाना चाहते हैं।

शनि देव से जुड़ी प्रमुख कथाएं

1. दशरथ और शनि देव

रामायण में एक प्रसंग आता है जहां राजा दशरथ को शनि की साढ़े साती का सामना करना पड़ता है। शनि की दृष्टि पड़ने से दशरथ को अपने प्रिय पुत्र राम से 14 वर्ष का वियोग सहना पड़ा।

2. हरिश्चंद्र और शनि देव

राजा हरिश्चंद्र, जो सत्य के प्रतीक थे, उन्हें भी शनि देव की परीक्षा से गुजरना पड़ा था। शनि की साढ़े साती के कारण हरिश्चंद्र को अपना राज्य, पत्नी और पुत्र तक खोना पड़ा था। लेकिन सत्य पर अडिग रहने के कारण अंत में उन्हें विजय प्राप्त हुई।

3. गणेश और शनि देव

एक बार भगवान गणेश ने शनि देव को अपनी दृष्टि उन पर डालने की चुनौती दी। शनि ने गणेश को बताया कि जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है, उसका विनाश निश्चित है। फिर भी गणेश ने उन्हें देखने के लिए कहा।

जब शनि ने गणेश पर दृष्टि डाली, तो गणेश का सिर उनके शरीर से अलग हो गया। लेकिन भगवान विष्णु ने हाथी का सिर लाकर गणेश के धड़ पर लगा दिया और उन्हें जीवन प्रदान किया। इस घटना से शनि की शक्ति का पता चलता है।

शनि देव की उपासना का महत्व

शनि देव के प्रकोप से बचने के लिए और उनके आशीर्वाद को प्राप्त करने के लिए भक्त विभिन्न उपाय करते हैं:

1. शनिवार का व्रत

शनिवार शनि देव का दिन माना जाता है। इस दिन व्रत रखकर और शनि देव की पूजा करके उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है।

2. काले तिल और सरसों का दान

शनि देव को काले तिल, सरसों, काला वस्त्र, तेल और लोहे की वस्तुओं का दान प्रिय है। इनका दान करने से शनि की कृपा प्राप्त होती है।

3. हनुमान जी की आराधना

हनुमान जी शनि देव के प्रभाव से बचाते हैं। शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करने से शनि की साढ़े साती का प्रभाव कम हो जाता है।

4. शनि मंत्र का जाप

“ॐ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥”

इस मंत्र का जाप करने से शनि देव प्रसन्न होते हैं और भक्त को आशीर्वाद देते हैं।

शनि देव से संबंधित प्रमुख मंदिर

भारत में कई प्रसिद्ध शनि मंदिर हैं जहां भक्त अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए जाते हैं:

1. शनि शिंगणापुर – महाराष्ट्र

यह भारत का सबसे प्रसिद्ध शनि मंदिर है। यहां शनि देव स्वयंभू रूप में विराजमान हैं। कहा जाता है कि यहां शनि की आराधना करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।

2. शनि मंदिर – कोलार, कर्नाटक

यह दक्षिण भारत का प्रसिद्ध शनि मंदिर है। यहां भक्त तेल अभिषेक करते हैं और शनि देव का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

3. तिरुनल्लार – तमिलनाडु

यहां शनि देव को “शनीश्वर भगवान” के नाम से पूजा जाता है। यह मंदिर शनि दोष निवारण के लिए प्रसिद्ध है।

शनि देव की साढ़े साती से बचने के उपाय

शनि की साढ़े साती से बचने के लिए कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं:

1. सेवा और दान

गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा और दान करने से शनि देव प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा बनी रहती है।

2. नीलम रत्न धारण करना

ज्योतिष के अनुसार, नीलम रत्न शनि देव का प्रिय रत्न है। इसे धारण करने से शनि के दुष्प्रभाव से रक्षा होती है।

3. पीपल के वृक्ष की पूजा

शनिवार को पीपल के वृक्ष की परिक्रमा करके और उसमें जल चढ़ाकर शनि देव को प्रसन्न किया जा सकता है।

4. काले उड़द का दान

शनिवार को काले उड़द का दान करने से शनि देव प्रसन्न होते हैं और साढ़े साती का प्रभाव कम होता है।

निष्कर्ष

शनि देव एक ऐसे देवता हैं जिनकी शक्तियां अनसुलझी और रहस्यमय हैं। उनका सूर्य देव से संबंध जटिल है, लेकिन दोनों का अपना महत्व है। हिन्दू धर्म में शनि को न्याय का देवता माना जाता है जो हर व्यक्ति को उसके कर्मों का फल अवश्य देते हैं।

शनि की साढ़े साती से डरने के बजाय हमें सत्कर्म करने चाहिए और धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए। क्योंकि शनि उन्हें कभी हानि नहीं पहुंचाते जो सत्य और धर्म का पालन करते हैं।

जैसा कि प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है – “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है।

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