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श्री कृष्ण की गोवर्धन लीलाओं का अनजाना सच

श्री कृष्ण की गोवर्धन लीलाओं का अनजाना सच|किसके श्राप से घट रहा है गोवर्धन पर्वत?

प्रस्तावना: गोवर्धन पर्वत का रहस्य

क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्यों प्रतिवर्ष हिंदू धर्म में गोवर्धन पूजा इतने उत्साह से मनाई जाती है? और क्या आप जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण द्वारा एक कनिष्ठा उंगली पर उठाया गया विशाल गोवर्धन पर्वत आज प्रतिदिन सिकुड़ रहा है? इस पर्वत का इतिहास और इसके पीछे छिपा श्राप का रहस्य आज भी बहुत कम लोग जानते हैं।

प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय था जब गोवर्धन पर्वत इतना विशाल था कि सूर्य इसके पीछे छिप जाता था। लगभग 5,000 वर्ष पूर्व यह पर्वत 30,000 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचता था, परंतु आज यह मात्र 25-30 मीटर की ऊंचाई तक सिमट कर रह गया है। इस अद्भुत घटना के पीछे एक प्राचीन ऋषि का श्राप है, जिसकी कहानी हम आज आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे।

गोवर्धन पूजा: आस्था और परंपरा का संगम

गोवर्धन पूजा हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जो दीपावली के अगले दिन मनाई जाती है। इस दिन भक्तगण भगवान श्री कृष्ण के लिए 56 प्रकार के व्यंजन (छप्पन भोग) तैयार करते हैं। यह संख्या 56 कैसे निर्धारित हुई, इसके पीछे एक रोचक कथा है।

जब भगवान श्री कृष्ण ने सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठा रखा था, उस दौरान वे कुछ भी नहीं खा पाए थे। माता यशोदा अपने लाडले कन्हैया को प्रतिदिन आठ बार भोजन कराती थीं। जब सातवें दिन श्री कृष्ण ने पर्वत को नीचे रखा, तब ब्रजवासियों ने उन्हें सात दिनों के आठ पहर अर्थात 7 × 8 = 56 प्रकार के व्यंजन भेंट किए। इसी दिन से अन्नकूट (भोजन का पहाड़) की परंपरा शुरू हुई।

गोवर्धन पूजा को अन्नकूट पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भक्तगण गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाकर उसकी पूजा करते हैं, जो पर्यावरण के प्रति सम्मान और प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक है।

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श्री कृष्ण की गोवर्धन लीला: इंद्रदेव का अहंकार भंग

द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत पर अनेक लीलाएं रचीं। उनमें से सबसे प्रसिद्ध है इंद्रदेव के अहंकार को चूर-चूर करने वाली लीला। एक बार श्री कृष्ण ने देखा कि ब्रजवासी बड़े उत्साह से इंद्रदेव की पूजा की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने माता यशोदा से इसका कारण पूछा।

माता यशोदा ने बताया, “पुत्र, हम इंद्रदेव की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वे वर्षा करते हैं, जिससे हमारी फसलें लहलहाती हैं और गायों को चारा मिलता है।”

इस पर श्री कृष्ण ने उत्तर दिया, “माँ, वर्षा करना तो इंद्रदेव का कर्तव्य है। यदि हमें पूजा करनी है, तो हमें गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि हमारी गायें वहीं चरती हैं और हमें फल, फूल, सब्जियां आदि भी गोवर्धन पर्वत से ही प्राप्त होते हैं।”

श्री कृष्ण की इस युक्तिपूर्ण बात से प्रभावित होकर सभी ब्रजवासियों ने इंद्रदेव के बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरू कर दी। यह देखकर इंद्रदेव को अपना अपमान महसूस हुआ और क्रोध में आकर उन्होंने प्रलयंकारी वर्षा शुरू कर दी।

भयंकर बाढ़ से त्राहि-त्राहि मच गई। ग्रामवासी परिवार और पशुओं की रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे। उन्होंने श्री कृष्ण पर दोष मढ़ते हुए कहा, “यह सब कृष्ण की बात मानने के कारण हुआ है। अब हमें इंद्रदेव का कोप भुगतना पड़ेगा।”

तब लीलाधारी श्री कृष्ण ने इंद्रदेव का अहंकार चूर करने और ब्रजवासियों की रक्षा के लिए अद्भुत लीला रची। उन्होंने अपनी कनिष्ठा उंगली पर विशाल गोवर्धन पर्वत उठा लिया और सभी ब्रजवासियों को उसके नीचे शरण लेने को कहा।

सात दिन और सात रात तक बिना थके, बिना हिले-डुले श्री कृष्ण ने पर्वत को उठाए रखा। इंद्रदेव अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उन्हें विचलित नहीं कर पाए। अंततः इंद्रदेव को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने श्री कृष्ण से क्षमा याचना की।

इसी दिन से गोवर्धन पूजा की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी पूरे भारत में श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाई जाती है।

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गोवर्धन पर्वत को मिला श्राप: पुलस्त्य ऋषि की कथा

अब आते हैं उस रहस्यमय कथा पर, जिसके कारण गोवर्धन पर्वत आज भी सिकुड़ता जा रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार महर्षि पुलस्त्य तीर्थ यात्रा करते हुए गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे। पर्वत की अद्भुत सौंदर्य देखकर वे मंत्रमुग्ध हो गए।

पुलस्त्य ऋषि ने द्रोणाचल पर्वत (गोवर्धन के पिता) से विनती की, “हे द्रोणाचल, आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए। मैं इसे काशी ले जाकर स्थापित करूंगा और वहीं रहकर इसकी पूजा करूंगा।”

द्रोणाचल यह सुनकर दुखी हो गए, परंतु गोवर्धन ने ऋषि से कहा, “मैं आपके साथ चलने को तैयार हूं, लेकिन मेरी एक शर्त है – आप मुझे जहां भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा।”

पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन की यह शर्त मान ली। गोवर्धन ने ऋषि को बताया, “मैं दो योजन ऊंचा और पांच योजन चौड़ा हूं। आप मुझे काशी कैसे ले जाएंगे?”

ऋषि ने उत्तर दिया, “मैं अपने तपोबल से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊंगा।” तब गोवर्धन पर्वत ऋषि के साथ चलने के लिए तैयार हो गया।

मार्ग में जब वे सुंदर ब्रज क्षेत्र से गुजर रहे थे, तब गोवर्धन के मन में विचार आया कि भविष्य में भगवान श्री कृष्ण और राधा जी इसी क्षेत्र में अनेक लीलाएं रचेंगे। उसने सोचा कि उसे यहीं रुक जाना चाहिए। यह सोचकर गोवर्धन पर्वत पुलस्त्य ऋषि के हाथों में और अधिक भारी हो गया।

ऋषि को विश्राम करने की आवश्यकता महसूस हुई और उन्होंने गोवर्धन को ब्रज की धरती पर रख दिया। वे यह भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन को रास्ते में कहीं भी नहीं रखना था।

कुछ देर बाद जब ऋषि पर्वत को पुनः उठाने लगे, तब गोवर्धन ने कहा, “ऋषिवर, अब मैं यहां से नहीं जा सकता। मैंने आपसे पहले ही कहा था कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा।”

पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन को साथ ले जाने की बहुत कोशिश की, परंतु वह अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। अंततः क्रोधित होकर पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को श्राप दे दिया:

“तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया। अतः आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता जाएगा और एक दिन तुम धरती में पूर्णतः समाहित हो जाओगे।”

इसी श्राप के कारण गोवर्धन पर्वत आज भी प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके धरती में समाता जा रहा है। मान्यता है कि कलियुग के अंत तक गोवर्धन पर्वत धरती में पूर्ण रूप से विलीन हो जाएगा।

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गोवर्धन परिक्रमा का महत्व और विधि

हिंदू धर्म में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति चारों धाम (बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और रामेश्वरम) की यात्रा नहीं कर पा रहा है, तो उसे कम से कम गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए। इससे मनचाहा फल प्राप्त होता है।

वल्लभ संप्रदाय में भगवान श्री कृष्ण के उस स्वरूप की विशेष पूजा की जाती है, जिसमें उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा रखा है।

गोवर्धन पर्वत लगभग 10 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसकी परिक्रमा करीब 21 किलोमीटर की है, जिसे पूरा करने में 5-6 घंटे का समय लगता है। यह पर्वत उत्तर प्रदेश और राजस्थान दोनों राज्यों में विस्तृत है। परिक्रमा के दौरान यात्री कुछ दूर चलने के बाद राजस्थान के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं।

परिक्रमा के दौरान भक्तगण निम्न स्थलों पर विशेष पूजा-अर्चना करते हैं:

  1. मानसी गंगा: यहां स्नान करने से मन की सारी कालिमा धुल जाती है।
  2. दान घाटी: यहां श्री कृष्ण ग्वालबालों से दान वसूला करते थे।
  3. मुख्यारविंद: माना जाता है कि यह गोवर्धन पर्वत का मुख है।
  4. राधा कुंड और श्याम कुंड: ये दोनों कुंड श्री राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं के साक्षी हैं।

गोवर्धन पूजा विधि: 56 भोग की परंपरा

गोवर्धन पूजा दीपावली के अगले दिन मनाई जाती है। इस दिन भक्तगण गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाते हैं और उसकी विधिवत पूजा करते हैं। पूजा की प्रमुख विशेषता 56 प्रकार के व्यंजनों का भोग है, जिसे अन्नकूट भी कहा जाता है।

गोवर्धन पूजा की विधि:

  1. सुबह स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें।
  2. गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाएं।
  3. इस प्रतीक पर तुलसी के पत्ते, फूल, अक्षत आदि चढ़ाएं।
  4. दीपक जलाकर अखंड ज्योति प्रज्वलित करें।
  5. गोवर्धन पूजा की कथा सुनें या पढ़ें।
  6. 56 प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाएं।
  7. आरती करें और प्रसाद का वितरण करें।

मान्यता है कि इस पूजा को करने से घर में अन्न की कभी कमी नहीं होती और परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।

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गोवर्धन पर्वत और कलियुग का संबंध

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, गोवर्धन पर्वत को साक्षात श्री कृष्ण का ही रूप माना जाता है। एक विश्वास यह भी है कि कलियुग के अंत तक नारायण के अंतिम अवतार कल्कि भगवान प्रकट होंगे, जिससे कलियुग की समाप्ति होगी। उसी समय तक गोवर्धन पर्वत भी पूर्णतः धरती में विलीन हो जाएगा।

इस प्रकार गोवर्धन पर्वत का इतिहास और भविष्य, हिंदू धर्म की कालगणना से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि सनातन धर्म में इस पर्वत का विशेष महत्व है।

उपसंहार: गोवर्धन लीला का वर्तमान महत्व

श्री कृष्ण की गोवर्धन लीला मात्र एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि जीवन के गहरे सिद्धांतों का प्रतीक है। इस लीला से हमें निम्न शिक्षाएं मिलती हैं:

  1. अहंकार का त्याग: इंद्रदेव के अहंकार के पतन की कथा हमें सिखाती है कि किसी भी पद या शक्ति का अहंकार विनाश का कारण बनता है।
  2. प्रकृति का सम्मान: गोवर्धन पूजा हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और सम्मान सिखाती है। पर्वत, नदियां, वृक्ष – ये सभी हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं।
  3. एकता में शक्ति: ब्रजवासियों ने एकजुट होकर संकट का सामना किया, जिससे सिद्ध होता है कि एकता में अद्भुत शक्ति होती है।
  4. प्रेम की विजय: श्री कृष्ण का ब्रजवासियों के प्रति प्रेम और समर्पण दर्शाता है कि प्रेम हर बाधा को पार कर सकता है।

आज के भौतिकवादी युग में, जब मानव प्रकृति से दूर होता जा रहा है, गोवर्धन पूजा हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का संदेश देती है। यह हमें याद दिलाती है कि हमारा अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है और उसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है।

इस प्रकार, श्री कृष्ण की गोवर्धन लीला और पुलस्त्य ऋषि के श्राप की कथा हमें न केवल ऐतिहासिक और धार्मिक ज्ञान देती है, बल्कि जीवन के मूल्यों को भी समझाती है। यही कारण है कि आज भी गोवर्धन पूजा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. गोवर्धन पूजा कब मनाई जाती है?

गोवर्धन पूजा प्रत्येक वर्ष दीपावली के अगले दिन, कार्तिक मास की शुक्ल प्रतिपदा (प्रथम तिथि) को मनाई जाती है। यह त्योहार मुख्य रूप से उत्तर भारत में धूमधाम से मनाया जाता है।

2. गोवर्धन पूजा में 56 भोग क्यों चढ़ाए जाते हैं?

श्री कृष्ण ने सात दिन तक गोवर्धन पर्वत उठाए रखा था और इस दौरान वे कुछ भी नहीं खा पाए थे। माता यशोदा उन्हें प्रतिदिन आठ बार भोजन कराती थीं। अतः 7×8=56 व्यंजन बनाकर उन्हें अर्पित किए गए थे।

3. गोवर्धन पर्वत कहां स्थित है?

गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सीमा पर मथुरा जिले में स्थित है। यह लगभग 10 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी परिक्रमा लगभग 21 किलोमीटर की है।

4. गोवर्धन पर्वत क्यों सिकुड़ रहा है?

पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि पुलस्त्य ने गोवर्धन पर्वत को श्राप दिया था कि वह प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता जाएगा और अंततः धरती में समाहित हो जाएगा। इसी श्राप के कारण गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई लगातार कम होती जा रही है।

5. गोवर्धन परिक्रमा का क्या महत्व है?

हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति चारों धाम की यात्रा नहीं कर पाता, तो गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने से उसे समान फल प्राप्त होता है। इससे जीवन की सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

6. अन्नकूट क्या है?

अन्नकूट शब्द का अर्थ है ‘अन्न का पहाड़’। गोवर्धन पूजा के दिन भगवान को चढ़ाए जाने वाले 56 प्रकार के व्यंजनों को अन्नकूट कहा जाता है। यह भगवान श्री कृष्ण के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रतीक है।

7. कलियुग के अंत में गोवर्धन पर्वत का क्या होगा?

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कलियुग के अंत तक गोवर्धन पर्वत पूर्णतः धरती में विलीन हो जाएगा। उसी समय भगवान विष्णु के अंतिम अवतार कल्कि भगवान का प्रादुर्भाव होगा और कलियुग की समाप्ति होगी।

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8. गोवर्धन पूजा के दिन किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता होती है?

गोवर्धन पूजा के लिए गोबर, कुश, फूल, अक्षत (चावल), रोली, धूप, दीप, नैवेद्य (56 भोग), तुलसी के पत्ते, गंगाजल और पंचामृत की आवश्यकता होती है।

9. क्या गोवर्धन पूजा सिर्फ कृष्ण भक्तों द्वारा ही की जाती है?

नहीं, गोवर्धन पूजा सभी हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्योहार है। यह विशेष रूप से उत्तर भारत में अधिक प्रचलित है, परंतु अन्य क्षेत्रों में भी इसे विभिन्न नामों और परंपराओं के साथ मनाया जाता है।

10. गोवर्धन पर्वत पर कौन-कौन से दर्शनीय स्थल हैं?

गोवर्धन पर्वत पर मुख्य दर्शनीय स्थल हैं – मानसी गंगा, दान घाटी, मुख्यारविंद, राधा कुंड, श्याम कुंड, कुसुम सरोवर, पूंछरी का लोटा बालाजी और हरिदेव जी मंदिर। इन सभी स्थलों का श्री कृष्ण की लीलाओं से विशेष संबंध है।

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